Wednesday, August 16, 2017

चलो दिलदार चलो / कैफ़ भोपाली

चलो दिलदार चलो 
चांद के पार चलो
हम हैं तैयार चलो...'


पाकीज़ा फ़िल्म के इस मशहूर गीत को क़लमबंद करने वाले शायर और गीतकार कैफ़ भोपाली को मुशायरों की रौनक़ कहा जाता था, वह आम चलन से हटकर शेर कहते थे। जिस मुशायरे में कैफ़ पहुंचे मानो वह मुशायरा कामयाब हो गया। 1917 को मध्यप्रदेश के भोपाल में जन्मे कैफ़ भोपाली सादा दिल और अपनी शर्तों पर ज़िंदगी जीने वाले शायर थे।

वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'चेहरे' किताब में निदा फ़ाज़ली कैफ़ भोपाली के बारे में लिखते हैं, "मैं अमरावती के निकट बदनेरा स्टेशन पर मुंबई की गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहा था। गाड़ी लेट थी। मैं समय गुज़ारने के लिए स्टेशन से बाहर आया। एक जानी-पहचानी मुतरन्निम आवाज़ ख़ामोशी में गूंज रही थी। यह आवाज़ मुझे कुलियों, फ़क़ीरों और तांगे वालों के उस जमघट की तरफ़ ले गयी जो सर्दी में एक अलाव जलाये बैठे थे और उनके बीच में 'कैफ़ भोपाली' झूम-झूम कर उन्हें ग़ज़लें सुना रहे थे और अपनी बोतल से उनकी आवभगत भी फरमा रहे थे। श्रोता हर शेर पर शोर मचा रहे थे। 

कैफ़ को दुनिया से बहुत ऐशो आराम की ख़्वाहिश नहीं थी, लेकिन शराब उनके शौक में पहले पायदान पर थी। निदा फ़ाज़ली लिखते हैं, 'प्रत्येक शहर के रास्ते मकान और छोटे-बड़े शहरी उन्हें अपनी बस्ती का समझते थे। वे मुशायरों के लोकप्रिय शायर थे। जहां जाते थे, पारिश्रमिक का अंतिम पैसा ख़र्च होने तक वे वहीं घूमते-फिरते दिखाई देते थे। एक मुशायरे से दूसरे मुशायरे के बीच का समय वे इसी तरह गुज़ारते थे। उनकी अपनी कमाई शराब एवं शहर के ज़रूरतमंदों के लिए होती थी। अन्य ख़र्चों की पूरी ज़िम्मेदारी उसी मेज़बान की होती थी, जो मुशायरे का संयोजक होने के साथ उनका प्रशंसक भी होता था। 

विशिष्ट तरन्नुम में शेर सुनाते थे। शेर सुनाते समय, आवाज़ के साथ पूरे जिस्म को प्रस्तुति में शामिल करते थे। जिस मुशायरे में आते थे, बार-बार सुने जाते थे। हर मुशायरे में उनकी पहचान खादी का वह सफेद कुर्ता-पायजामा होता था जो विशेष तौर से उसी मुशयारे के लिए किसी स्थानीय खादी भंडार से ख़रीदा जाता था।"

कमाल अमरोही ने जब कैफ़ को एक मुशायरे में सुना, तो वो उनसे इतना प्रभावित हुए कि उन्हें फ़िल्मों में गीत लिखने का मशविर दिया। कैफ़ ने मशविरे पर अमल करते हुए अपना फ़िल्म गीत लिखने का सफ़र कमाल अमरोही के साथ शुरू किया। हालांकि, उनका यह सफ़र सिर्फ कमाल अमरोही तक सिमटा रहा। फाज़ली लिखते हैं, 'कमाल अमरोही ने भी अमरोहा के एक मुशायरे में सुनकर ही उन्हें फ़िल्म गीत लिखने का निमंत्रण दिया था। उनके गीतों की पहली फ़िल्म 'दायरा' थी। इसमें संगीतकार जमाल सेन की तर्ज में उनका लिखा हुआ गीत-

'देवता तुम हो मेरा सहारा 
मैंने थामा है दामन तुम्हारा' 


अपने ज़माने में बहुत लोकप्रिय हुआ था। इस फ़िल्म के बाद वे कमाल अमरोही के पसंदीदा शायर बन गये थे। वे जब भी कोई नयी फ़िल्म शुरू करते थे, उसमें एक या दो गीत उनसे ज़रूर लिखवाये जाते थे। कैफ़ साहब का कोई एक पता नहीं था। वे जब तक जिस शहर में होते थे वहीं का कोई घर या होटल उनका पोस्टल एड्रेस होता था। इस मुश्किल को आसान करने के लिए कमाल अमरोही ने अपने स्टाफ में एक आदमी को निर्धारित कर दिया था। उसका काम कैफ़ के बदलते पते हुए ठिकानों का पता लगाना था। 

फ़िल्म के शुरू होते ही वे लम्बे चौड़े-मुल्क में जहां होते थे, वहीं से बुलवाये जाते थे। कमालिस्तान के एक कमरे में ठहराये जाते थे, नहलाये जाते थे, नये लिबास उनके लिये सिलवाये जाते थे। एक दो-सेवक उनकी निगरानी पर लगाये जाते थे। नज़दीक की एक-दो दुकानों में उनकी शराब के खाते खुलवाये जाते थे। इस प्रयोजन के साथ उनसे गीत लिखवाये जाते थे। 

फाज़ली लिखते हैं, "कैफ़ की आवभगत का यह क्रम गीतों के पूर्ण होने तक लगातार जारी रहता था। जब गीत रिकॉर्ड हो जाते थे तो फिर वे पारिश्रमिक के साथ जहां जाना चाहते थे विदा कर दिये जाते थे। कमाल साहब की यह वज़ेदारी उनकी अंतिम फ़िल्म 'रज़िया सुल्तान' तक जारी रही। कैफ़ साहिब ने कमाल साहिब की फ़िल्मों में कई सफल गीत लिखे थे। इनमें वे गीत भी शामिल थे जो फ़िल्म में कमाल अमरोही के नाम से शामिल होते थे। फ़िल्म 'शंकर हुसैन' में उनका गीत - 

'इंतज़ार की शब में चिलमने सरकती हैं
चौंकते हैं दरवाज़े, सीढ़ियां धड़कती हैं'


फ़िल्म 'पाकीज़ा' में 'चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो' जैसे गीतों की लोकप्रियता ने फ़िल्म इंडस्ट्री में उनके लिए नयी राहें बनाई थीं। उन्हें कई प्रस्ताव भी मिले लेकिन उन्होंने स्वीकार नहीं किये और करते भी कैसे कमाल साहिब जैसी उर्दू तहज़ीब उन्हें दूसरों के यहां नहीं मिली। वे गीत से अधिक प्रीत के रसिया थे।' 

मुशायरों की रूह कहे जाने वाले कैफ भोपाली ने 1991 में इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उनकी ज़िंदगी पर उनका ही एक शेर मौज़ूं लगता है-

'अज़ां होने को है जामो-सुराही से चिराग़ां कर
कि वक़्ते-शाम, वक़्ते शाम, वक़्ते शाम है साकी'

Wednesday, February 15, 2017

खीर - सिर्फ 6 मिनट की ये फिल्म आपका दिन बना देगी


इंसान की कुछ बेसिक आदतों में से एक है नामकरण. हम हर चीज, हर इंसान, हर रिश्ते को किसी नाम से बुलाना-पहचानना चाहते हैं. हम ऐसा करते भी हैं. जब तक मामला किसी चीज या इंसान का होता है, तब तक तो ठीक है, लेकिन रिश्ते का मसला थोड़ा पेचीदा हो जाता है. हम हर रिश्ते को एक पहचान, एक नाम देते हैं. वेलेंटाइन डे कैसे मनाना चाहिए और किसके साथ मनाना चाहिए, ये छिछली बहस इन दिनों आम है. लेकिन इससे पहले बात तो इस पर होनी चाहिए कि हर रिश्ते को नाम दिया ही क्यों जाए.
इसी पर बात करने वाली एक शॉर्ट फिल्म आई है, ‘खीर’. टेरिबली टिनी टॉकीज नाम के यू-ट्यूब चैनल पर अपलोड की गई 6 मिनट की इस शॉर्ट फिल्म में सिर्फ चार किरदार हैं. अनुपम खेर, नताशा रस्तोगी, अभिमन्यु चावला और स्तुति दीक्षित. ये चारों किरदार दो जोड़ों में हैं. एक उम्रदराज जोड़ा, जो एक नाजुक पड़ाव पर एक-दूसरे का साथ दे रहा है और दूसरी तरफ दो छोटे भाई-बहन, जो अभी रिश्तों को किसी नाम से परखना सीख रहे हैं. ये उन्होंने कहीं सीखा होगा शायद.
इस फिल्म में भी यही द्वंद है, जो हमारी जिंदगियों में हर रोज चलता है. वो द्वंद हमें कहां ले जाता है, पता नहीं, लेकिन 6 मिनट की ये फिल्म हमें मैच्योरिटी के एक अगले स्तर पर ले जाती है. रिश्तों को नाम देना बुरा नहीं है, लेकिन रिश्तों के लिए सीमित शब्दकोश होना जरूर बुरा है.  अनुपम खेर की ये फिल्म आपका  दिन बना देगी.  फिल्म देखिए:


Thursday, February 2, 2017

ड्यूल कैमरा स्मार्टफोन्स


आजकल स्मार्टफोन्स में इतने अच्छे कैमरे आने लगे हैं कि उन्होंने पॉइंट-ऐंड-शूट कैमरों को लगभग रिप्लेस कर दिया। स्मार्टफोन बनाने वाली कंपनियों के सामने चुनौती यह होती है कि वजन और मोटाई कम रखते हुए कैसे कैमरों को बेहतर बनाया जाए। इस समस्या को दूर करने के लिए अब एक ही डिवाइस में ज्यादा कैमरे लगाए जा रहे हैं। जानें, क्या है यह ड्यूल कैमरा टेक्नोलॉजी और क्या हैं इसके फायदे:
ड्यूल कैमरा सेटअप आखिर है क्या?

स्मार्टफोन की बैक साइड में एक छोटा सा कैमरा लेंस दिया गया होता है। स्मार्टफोन्स में कैमरा मॉड्यूल काफी छोटा होता है, क्योंकि फोन खुद भी पतला होता है। इस छोटे से मॉड्यूल के अंदर ही लेंस के कई एलिमेंट्स को डालना होता है। इनमें इमेज सेंसर और ऑप्टिकल इमेज स्टेबलाइजेशन के लिए छोटी मोटर्स भी होती हैं।

ड्यूल कैमरा सेटअप में आपको दो लेंस नजर आएंगे, जिन्हें एकसाथ दाएं-बाएं या ऊपर-नीचे लगाया गया होता है। इसका मतलब है कि डिवाइस में दो कंप्लीट और इंडिपेंडेंट कैमरा मॉड्यूल लगे हैं। इनमें से एक प्राइमरी लेंस होता है, जो मुख्य काम करता है। दूसरा सेकंडरी लेंस अडिशनल लाइट, डेप्थ ऑफ फील्ड और बैकग्राउंड ब्लर जैसे इफेक्ट्स कैप्चर करता है।

2011 में आया था ड्यूल कैमरे वाला पहला स्मार्टफोन

ड्यूल कैमरा स्मार्टफोन सबसे पहले साल 2011 में देखने को मिला था। HTC Evo 3D स्मार्टफोन में ड्यूल कैमरा सेटअप इस्तेमाल किया गया था ताकि 3D तस्वीरें ली जा सकें। इन्हें स्मार्टफोन की 3D स्क्रीन पर देखा जा सकता था। इसके बाद इस टेक्नॉलजी के साथ एक्सपेरिमेंट किए जाते रहे, मगर आइडिया कामयाब नहीं हुआ। साल 2014 में HTC One M8 में ड्यूल कैमरा सेटअप लगा हुआ था। यह काफी शानदार डेप्थ ऑफ फील्ड इफेक्ट कैप्चर करता था।

2016 में ड्यूल कैमरों ने स्मार्टफोन्स में जगह की दिक्कत को दूर करते हुए शानदार रिजल्ट देना शुरू कर दिया।


ड्यूल कैमरा सिस्टम का फायदा क्या है?

ड्यूल कैमरा सेटअप में सेकंडरी कैमरे को कैसे इस्तेमाल किया गया है, तस्वीरों में उसका रिजल्ट वैसे ही दिखता है। ड्यूल कैमरा सेटअप से तस्वीरें ज्यादा शार्प आती हैं और ज्यादा डीटेल्स कैप्चर होती हैं। साथ ही डेप्थ ऑफ फील्ड को कैप्चर करके सब्जेक्ट को अलग से हाइलाइट किया जा सकता है।

कई बार ड्यूल कैमरा सेटअप आपको 1x और 2x ऑप्टिकल जूम ऐड करने में भी मदद करता है। अभी ऐपल आईफोन 7 प्लस और आसुस जेनफोन 3 जूम में हम ऐसा देख सकते हैं।

कई बातों पर निर्भर करती है पिक्चर क्वॉलिटी

भले ही ड्यूल-कैमरा सेटअप से रिजल्ट अच्छे आते हैं, मगर सेंसर साइज, पिक्सल साइज, अपर्चर और पोस्ट प्रोसेसिंग का भी अच्छी तस्वीरें खींचने में अहम भूमिका निभाते हैं।

सैमसंग गैलक्सी S7/S7 Edge, गूगल पिक्सल, वनप्लस 3, LG G5 और HTC 10 कम लाइट में बहुत से ड्यूल कैमरा स्मार्टफोन्स के मुकाबले अच्छी तस्वीरें लेते हैं। इनके लेवल की अच्छी तस्वीरें खींचने वाले ड्यूल कैमरा सेटअप वाले स्मार्टफोन्स हैं- iPhone 7 Plus और Vave P9.

Vibe S1 था ड्यूल फ्रंट कैमरे वाला पहला स्मार्टफोन

साल 2015 में लेनोवो ने ड्यूल फ्रंट कैमरे वाला स्मार्टफोन Vibe S1 लॉन्च किया था। इसमें एक 8 मेगापिक्सल फ्रंट कैमरा और दूसरा 2 मेगापिक्सल फ्रंट कैमरा था। वीवो ने भी हाल ही में ड्यूल फ्रंट कैमरे वाला स्मार्टफोन Vivo V5 Plus लॉन्च किया है। इसमें एक कैमरा 20 मेगापिक्सल और दूसरा 8 मेगापिक्सल है।




अब महंगे नहीं रहे ड्यूल कैमरे वाले स्मार्टफोन

भारत में पिछले साल वावे P9, LG G5, iPhone 7 Plus जैसे ड्यूल बैक कैमरे वाले स्मार्टफोन आए। ये सभी प्रीमियम स्मार्टफोन हैं और इनकी कीमत 35000 रुपये से ज्यादा रही। अब यह टेक्नॉलजी एंट्री लेवल स्मार्टफोन्स में भी नजर आने लगी है, जैसे कि जोलो ब्लैक। 2016 के आखिर में ऑनर 8 स्मार्टफोन 30,000 रुपये से कम दाम पर लॉन्च हुआ। फिर 2017 में कूल 1 ड्यूल और ऑनर 6x जैसे स्मार्टफोन्स मिड रेंज में लॉन्च हुए।
2017 में आएंगे ड्यूल कैमरे वाले स्मार्टफोन्स

पहला ड्यूल-कैमरे वाला स्मार्टफोन 2011 में आया था, मगर इस टेक्नॉलजी के आगे बढ़ने में वक्त लग गया। अब 2017 में ड्यूल कैमरा सेटअप वाले बहुत से फोन लॉन्च होने की उम्मीद है। इससे न सिर्फ इमेज क्वॉलिटी इंप्रूव होगी, तस्वीरों में एडिशनल इफेक्ट्स भी डाले जा सकेंगे।

Monday, August 24, 2015

गुलज़ार साहब के पहले गीत की कहानी

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(गुलजार ने सिनेमाई गीतों को नए प्रतिमान दिए हैं। इनके लिखे पहले गीत के पूरे होने की कहानी रोचक है। आइये, उसे जानें गुलजार की ही कलम से)


बंदिनी फिल्म में बिमल-दा और सचिन-दा दोनों को मिलाकर ही कल्याणी की सही हालत समझ में आती है। सचिन-दा ने अगले दिन बुलाकर मुझे धुन सुनाई : ललल ला ललल लला ला
'मोरा गोरा रंग लई ले' इस गीत का जन्म वहां से शुरू हुआ जब बिमल-दा और सचिन-दा ने सिचुएशन समझाई। कल्याणी (नूतन) जो मन-ही-मन विकास (अशोक कुमार) को चाहने लगी है, एक रात चूल्हा-चौका समेटकर गुनगनाती हुई बाहर निकल आई।
" ऐसा करेक्टर घर से बाहर जाकर नहीं गा सकता", विमल-दा ने वहीं रोक दिया। "बाहर नहीं जाएगी तो बाप के सामने कैसे गाएगी?" सचिन-दा ने पूछा।
"बाप से हमेशा वैष्णव कविता सुना करती है, सुना क्यों नहीं सकती?" बिमल-दा ने दलील दी।
"यह कविता-पाठ नहीं है, दादा, गाना है।"
"तो कविता लिखो। वह कविता गाएगी"।
"गाना घर में घुट जाएगा।"
"तो आंगन में ले जाओ। लेकिन बाहर नहीं जाएगी।"
"बाहर नहीं जाएगी तो हम गाना भी नहीं बनाएगा।",सचिन-दा ने भी चेतावनी दे दी।
कुछ इस तरह से सिचुएशन समझाई गई मुझे। मैंने पूरी कहानी सुनी, देबू से। देबू और सरन दोनों दादा के असिस्टेंट थे। सरन से वे वैष्णव कविताएं सुनीं जो कल्याणी बाप से सुना करती थी। बिमल-दा ने समझाया कि रात का वक्त़ है, बाहर जाते डरती है, चांदनी रात में कोई देख न ले। आंगन से आगे नहीं जा पाती।
सचिन-दा ने घर बुलाया और समझाया: चांदनी रात में डरती है, कोई देख न ले। बाहर तो चली आई, लेकिन मुड़-मुड़के आंगन की तरफ देखती है।
दरअसल, बिमल-दा और सचिन-दा दोनों को मिलाकर ही कल्याणी की सही हालत समझ में आती है। सचिन-दा ने अगले दिन बुलाकर मुझे धुन सुनाई : ललल ला ललल लला ला
गीत के पहले-पहले बोल यही थे। पंचम (आर.डी.बर्मन) ने थोड़ा-सा संशोधन किया :
ददद दा ददा ददा दा
सचिन-दा ने फिर गुनगुनाकर ठीक किया :
ललल ला ददा दा लला ला
गीत की पहली सूरत समझ में आई। कुछ ललल ला और कुछ ददद दा-
मैं सुर-ताल से बहरा भौंचक्का-सा दोनों को देखता रहा। जी चाहा, मैं अपने बोल दे दूं:
तता ता ततता तता ता
सचिन-दा कुछ देर हार्मोनियम पर धुन बजाते रहे और आहिस्ता-आहिस्ता मैंने कुछ गुनगुनाने की कोशिश की। टूटे-टूटे से शब्द आने लगे : दो-चार... दो-चार... दुई-चार पग पे अंगन-
दुई-चार पग... बैरी कंगना छनक ना-
गलत-सलत सतरों के कुछ बोल बन गए:
बैरी कंगना छनक ना
मोहे कोसों दूर लागे
दुई-चार पग पे अंगना-
सचिन-दा ने अपनी धुन पर गाकर परखे, और यूं धुन की बहर हाथ आ गई।
चला आया। गुनगुनाता रहा। कल्याणी के मूड को सोचता रहा। कल्याणी के ख्याल क्या होंगे ? कैसा महसूस किया होगा ? हां, एक बात ज़िक्र के काबिल है। एक ख़्याल आया, चांद से मिन्नत करके कहेगी:
मैं पिया को देख आऊं
जरा मुंह फिराई ले चांद
फ़ौरन ख़्याल आया, शैलेन्द्र यही ख़्याल बहुत अच्छी तरह एक गीत में कह चुके हैं :
दम-भर को जो मुंह फेरे-ओ चंदा-
मैं उनसे प्यार कर लूंगी
बातें हजार कर लूंगी-
कल्याणी अभी तक चांद को देख रही थी। चांद बार-बार बदली हटाकर झांक रहा था, मुस्करा रहा था।
जैसे कह रहा हो, कहं जा रही हो ? कैसे जाओगी ? मैं रोशनी कर दूंगा। सब देख लेंगे। कल्याणी चिढ़ गई। चिढ़के गाली दे दी :
तोहे राहू लागे बैरी
मुसकाए जी जलाई के
चिढ़के गुस्से में वहीं बैठ गई। सोचा, वापस लौट जाऊं। लेकिन मोह, बांह से पकड़कर खींच रहा था। और लाज, पांव पकड़कर रोक रही थी। कुछ समझ में नहीं आया, क्या करे? किधर जाए? अपने ही आपसे पूछने लगी:
कहां से चला है मनवा
मोहे बावरी बनाई के
गुमसुम कल्याणी बैठी रही। बैठी रही, सोचती रही, काश, आज रोशनी न होती। इतनी चांदनी न होती। या मैं ही इतनी गोरी न होती कि चांदनी में छलक-छलक जाती। अगर सांवली होती तो कैसे रात में ढंकी-छुपी अपने पिया के पास चली जाती। लौट आई बेचारी कल्याणी, वापस घर लौट आई। यही गुनगुनाते :
मोरा गोरा रंग लई ले
मोहे श्याम रंग दई दे।।
एक बार पूरे  गाने का आनंद लीजिये 



Tuesday, July 14, 2015

हेमलता


हेमलता अब बाज़ार से लगभग गुम हैं। न नए गाने गा रही हैं, न ही किसी तरह की खबरों में ही उपस्थित हैं वह। सार्वजनिक जीवन या व्यक्तिगत जीवन भी उन का किसी को मालूम नहीं है आसानी से। पर उन के गाए गाने आज भी ज़िंदा हैं, बजते मिलते रहते हैं जब-तब, जहां-तहां। कानों और मन में मिठास बोते हुए। उन की गायकी आज भी पुकारती है। वर्ष १९९७ में वह एक कार्यक्रम के सिलसिले में लखनऊ आई थीं। तभी दयानंद पांडेय ने उन से यह बातचीत की थी। तब उन की नई-नई दूसरी शादी हुई थी। यह बातचीत उन के नए-नवेले पति दिलीप जी के सामने ही हुई थी। वह जैसे नई शादी की चहक में कुहुक रही थीं, मचल रही थीं। बावजूद इस चहक के वह अपने पहले पति योगेश और रवींद्र जैन के द्वारा दी गई यातना की आंच में दहक-दहक जाती थीं। रवींद्र जैन द्वारा उन का किया गया चौतरफा शोषण रह-रह कर उन की जुबान पर चढ़ जाता था। यह बातचीत थोड़ी पुरानी ज़रुर है पर बातें आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी अगर आज की बातचीत में होतीं। आज भी उतनी ही टटकी हैं। लगता है जैसे हेमलता जी से यह बातचीत कल ही हुई हो। पेश है बातचीत :

‘अखियों के झरोखों से मैं ने देखा जो सांवरे, तुम दूर नज़र आए, बड़ी दूर नजर आए’ और नदिया के पार में ‘पहुना हो पहुना’ जैसे मीठे गीत गाने वाली हेमलता आज कल सपनों के एक नए गांव में एक नई गायिकी और एक नए दांपत्य के साथ उपस्थित हैं। कोई अड़तीस भाषाओं में गाना गाने वाली सुप्रसिद्ध पार्श्व गायिका हेमलता दरअसल इन दिनों अपने कैरियर के दूसरे दौर में हैं। पर वह मानती हैं कि यह दूसरा दौर हमारा गोल्डेन पीरियड है। दरअसल हेमलता न सिर्फ अपनी गायिकी के कैरियर का दूसरा दौर जी रही हैं बल्कि अपनी ज़िंदगी का भी दूसरा दौर वह जी रही हैं। उन्हों ने यह दूसरी शादी की है और अपने इस दूसरे दांपत्य से वह बेहद खुश हैं। वह कहती भी हैं कि, ‘शब्दों में इसे कहा नहीं जा सकता। न आप लिख सकते हैं, न मैं कह सकती हूँ। पर अब पता चला है कि शादी क्या होती है, सुरक्षा क्या होती है जो हर पत्नी को मिलनी चाहिए। अब पता चला है। यह सब श्री माता जी के आशीर्वाद का फल है। मां ने मुझे नया जीवन दिया है।'

हेमलता बताती हैं कि, ‘एकदम से जैसे सब कुछ अपने आप होता चला गया। मैं भी आजिज हो गई थी। वह जो ‘अवेविलिटी’ (उपलब्धता) का बोर्ड माथे पर लटका पड़ा था, कि खंभे से भी बात करो तो शक। अब मैं अभय हूँ। बहुत ही खुशी सम्मान के साथ मिली है। अपने समाज में विधवा होना सचमुच बहुत बड़ा अपराध है। खास कर युवा विधवा के लिए। हर कोई उसे अपनी जागीर समझता है। पर मैं अपने पारिवारिक संस्कारों में जकड़ी हुई थी। दूसरे विवाह को गलत मानती थी, अपराध जैसा कुछ। तो उस के लिए तैयार नहीं थी। विवाह को ले कर, पति को ले कर, मेरे मन में जो एक डर था, खौफ था, शायद झूठ-मूठ का खौफ था, शायद पिछले दांपत्य का जो अनुभव था, उन सब को ले कर मैं बहुत सशंकित थी। पर अब लगता है कि यह दूसरी शादी का फ़ैसला बहुत पहले ले लेना चाहिए था।' हेमलता दरअसल ज़िंदगी और गायकी दोनों ही के मोड़ पर आहत रही हैं और बेहद तनाव जीती रही हैं। गायकी में तमाम गायिकाओं की तरह हेमलता को भी ‘मंगेशकर बैरियर’ तो पार करना ही था पर हेमलता को एक और बैरियर भी पार करना था, संगीतकार रवींद्र जैन के शोषण का बैरियर। हालां कि अब वह रवींद्र जैन के शोषण बैरियर को भी पार कर चुकी हैं और मंगेशकर बैरियर तो जाने कब का पार कर लिया था। लेकिन रवींद्र जैन के शोषण को आज भी वह भूल नहीं पातीं। न ही अपने पहले बिखरे दांपत्य को। तो पहले उन के बीते दांपत्य के बिखराव की चर्चा।

वह खुद ही बताती हैं कि, ‘शादी के फेरों के बाद वह चार दिन ससुराल में रहीं। फिर सात साल पीहर में गुज़ारे। दरअसल मेरा विवाह बड़ी हड़बड़ी में हुआ और मेरी मर्जी से नहीं हुआ। दरअसल योगिता बाली के भाई योगेश ने मुझे मेरे भाई की इंगेजमेण्ट पार्टी में देखा और कहा कि शादी करुंगा तो हेमलता से। पर मैं तैयार नहीं थी। कई बातें थी। पर बड़ी बात यह थी कि घर में मैं ही एकमात्र अर्निंग मेंबर थी। छोटे तीन भाई थे। कैरियर था गा रहे थे। पर पैसे कहाँ थे? पर योगेश जी ज़िद पर अड़े रहे। तो तय हुआ कि इंगेजमेंट के पांच साल बाद शादी होगी। तो उन्हों ने हां कर दिया। पर इंगेजमेंट के बाद ही वह अड़ गए कि 48 घंटों में शादी करिए नहीं इंगेजमेंट तोड़ देंगे। तो बाबा ने शादी करवा दिया। पर शादी के चार दिन बाद ही ससुराल से वापस लौटा दिया। सात साल पीहर में रही। यह बात दूर दूर तक फैल गई। पर मेरे पास यह सब सोचने के लिए समय नहीं था न! तब तो मैं स्टार गायिका हो गई थी। फिर कोई छह बरस बाद अचानक उन का आविर्भाव हुआ। कंप्रोमाइज की बातें की। माफिया मांगीं। जैसा कि होता है, मां बाप की मर्जी मान कर जाना पड़ा। फिर जब दुबारा गई ससुराल तो उस का शुभ परिणाम भी मिला। एक बेटा आदित्य मिला जो अब 15 साल का है और नौवीं में पढ़ता है। पर जब बेटा छह महीने का था, तभी पीहर फिर वापस आना पड़ा। जब बेटा छह साल का हुआ तो उस के पिता का निधन सिरोसिस ऑफ लिवर की बीमारी से हो गया।

यही वह वक्त था जब जनवरी 1989 से ले कर आने वाले तीन साल तक मैं एक तरह से साइलेंस में चली गई। यह सदमा बर्दाश्त नहीं हुआ। लेकिन फिर हम कलाकारों के साथ होता ही है कि ‘शो मस्ट गो ऑन’ तो मेरे होशो हवास वापस आए, वाणी वापस आई। सात सुरों के बीच रहने की राह निकल आई। और सब से बड़ी बात यह हुई कि 1990 में माता निर्मला से मेरा साक्षात्कार हुआ। यह मेरे लिए बड़ा मुश्किल वक्त था। फ़िल्म इंडस्ट्री का माहौल बिगड़ चुका था। लड़ाई टैलेंट की नहीं, संगीतकारों की नहीं बल्कि कंपनियों की चल रही थी। और एक व्यवसाई तो संगीत समझने से रहा। गुलशन कुमार या चंपू जी संगीत को कोई जस्टिफिकेशन दें, तो इन्हें कनविंस करना मेरे वश की बात नहीं थी। ऐसे माहौल में श्री माता जी का आशीर्वाद मुझे मिला। माँ ने मुझे नया जीवन दिया। मेरा अभ्यास पहले दिन की तरह शुरु हो गया, वह लगन बरकरार रही। और जो मेरा यह दूसरा विवाह हुआ है इस में श्री माता जी के अलावा 50 प्रतिशत मेरी सास का हाथ है। दिलीप जी मुझे मेरे पहले पति योगेश जी के घर से ही विदा करा कर लाए। मेरी पुरानी सास पढ़ी-लिखी हैं, मेरी ननद योगिता बाली मुझ से बहुत प्यार करती हैं। और जब मैं विधवा हुई थी तो योगिता ही सब से पहली व्यक्ति थीं जिन्हों ने मुझ से कहा ‘शादी तुरंत करो।’ शायद इस लिए भी कि योगिता-मिथुन का ‘पास्ट’ था। पर आज दोनों खुश हैं। फिर मेरे दिमाग में रिमैरेज एक बहुत बड़ा टैबू थी, हव्वा थी। कभी-कभी लगता है कि श्री माता जी की बात पहले क्यों नहीं मान ली।'

‘अगर योगेश जी जीवित होते तो भी क्या आप दिलीप जी से दूसरी शादी कर सकती थीं?’ पूछने पर हेमलता बोलीं, ‘बिल्कुल कर सकती थी। करना चाहिए था मुझे। नहीं कर के गलती की थी। क्यों कि मैं इसे धर्म से जोड़ कर देखती थी। तथाकथित परंपरा और संस्कारों को निभा रही थी। पर सच यह है कि धारणा से ही धर्म होता है। ‘धारायति इति धर्म:।’ कितना पहले दूसरी शादी कर लेनी चाहिए थी? हेमलता बोलीं, ‘उन चार दिनों के बाद ही। अप्रैल 1973 में। पर तब डिवोर्सी शब्द से भय था। छोड़ी हुई औरत के धब्बे से नहीं डरती तब तो अच्छा था। पर तब तो धर्म यह था कि, मेरा पति देवता है।’ वह बोलीं, ‘जब दूसरी बार योगेश जी मुझे लेने आए थे तो मैं ने उन से दो सवाल पूछे थे। पहला यह कि मुझे क्यों छोड़ा? और दूसरा यह कि अब क्यों लेने आए हो? मेरा सिंगर होना अगर अयोग्यता थी तो ब्याह क्यों किया? जो जवाब उन्हों ने दिया वह कल्पना से परे था। तुम ने कहा था कि पांच साल बाद शादी करोगी तो पांच साल के लिए तुम्हें भेज दिया था। मैं ने कहा कि यह बात इंगेजमेंट के बाद कही थी, शादी के बाद नहीं। तो कहने लगे तुम जैसी लड़की को मिस नहीं करना चाहता था। और जानता था कि विवाह के बाद तुम मुझे छोड़ोगी नहीं।’

यह पूछने पर कि ‘तो क्या उन के इस कहे में आप को ईमानदारी दिखी थी?’ पूछने पर हेमलता बोलीं, ‘उनके इस कहे में ईमानदारी ढूंढ लेना ही तब भलाई थी। परिवार की इज्जत थी’। ‘मंगेशकर बैरियर कैसे तोड़ा आप ने?’ पूछने पर वह बोलीं, मैं ने नहीं तोड़ा। सब कुछ अपने आप हो गया। पर यह सही है कि मंगेशकर बैरियर था एक समय। सोलो तो छोड़िए कोरस भी उन्हीं की मर्जी से गाया जा सकता था। पर राजश्री ने मेरी मदद की और यह सिलसिला शुरु हुआ ‘गीत गाता चल से’ तो भी मेरी बात तो बनी ही नहीं थी। फिर चितचोर में दो गाने डुएट गाए तो लाइमलाइट में आई। हालां कि 1969-70 में विश्वास फ़िल्म में मुकेश के साथ ‘ले चल मेरे जीवन साथी ले चल’ तेरह साल की उम्र में कल्याण जी आनंद जी के संगीत में गाया था। फिर उषा खन्ना के संगीत में ‘एक फूल एक भूल’ फ़िल्म में ‘दस पैसे में राम ले लो’ गाया था, तीसरा गाना ‘जीने की राह’ फ़िल्म में ‘चंदा को ढूंढने सभी तारे निकल पड़े’ गाया था। एस. डी. बर्मन के संगीत में ज्योति फ़िल्म में भी गाया। पर लाइम लाइट में आई फकीरा फ़िल्म के गाने से, ‘फकीरा चल चला चल।’ मेरा गांव, मेरा देश और कच्चे धागे जैसी फ़िल्मों में कई हिट गीत इस के पहले गाए थे।

हालां कि 1968 में नौशाद साहब ने मुझ से पांच साल का एग्रीमेंट कराया था कि मैं कहीं और नहीं गाउंगी। पर 1969 में यह एग्रीमेंट डिसओबे करना पड़ा। क्यों कि जब सभी बारी-बारी नाराज होने लगे तो लक्ष्मीकांत जी ने मेरे पिता से कहा कि इन पांच सालों में किस-किस को नाराज करेंगे? हालां कि नौशाद साहब मेरे लिए कहते थे कि हेमलता में क्वालिटी ऑफ लता मंगेशकर और दि इनोसेंस ऑफ नूरजहां दोनों है। चूंकि मुझे लाने वाले नौशाद साहब थे तो लोगों ने बगैर मुझे सुने सिंगर मान लिया। पर एग्रीमेंट तोड़ने का नौशाद साहब ने आज तक बुरा नहीं माना। कम से कम मुझ से कुछ नहीं कहा। देखिए बड़े लोग कितने महान होते हैं। बावजूद इस के उन्हों ने फकीरा में मुझे चांस दिया। जब कि तब वह बहुत हर्ट थे। पर मैं आज तक हर्ट हूँ। इस बात का दुख हमेशा रहेगा। पर यह फ़ैसला मेरा नहीं, मेरे पिता का था।

‘रवींद्र जैन से आप का अलगाव क्यों हुआ?'  पूछने पर हेमलता बोलीं, ‘शोषण की स्थिति इस सीमा तक चली गई कि मन खराब हो गया। वह मेरे बाबा के शिष्य थे, और मेरे गुरु। मुझ से गलती यह हुई कि काम और व्यापार में मैं ने संबंधों का महत्व निभाना शुरु कर दिया । जिन हालातों में मैं जी रही थी, यही इंप्रेशन था कि एक वही परिवार है जो मुझे प्यार करता है। लेकिन जब यह भ्रम टूटा तो अपनी ओर लौटने का मौका मिला। होता यह था कि मेरी सारी मेहनत, सारा एफर्ट उन्हीं के नाम से जाना जाता था। ‘उन से अलग होने की कीमत भी क्या चुकानी पड़ी है आप को?' पूछने पर वह बोलीं, ‘अलग होने की कीमत तो नहीं पर उन से जुड़ने की कीमत ज़रूर चुकाई है। कहीं बहुत ज़्यादा। जहां सौ रुपए मिलते थे वहां बहुत मुश्किल से पांच रुपए दिए गए। लोगों ने मुझे एक ग्रुप की सिंगर कह कर काट दिया। फ़िल्म इंडस्ट्री के कुछ गंदे स्ट्रेट मेकर्स भद्दे कमेंट्स के जरिए अपमानित करते हैं, उन का भी शिकार बनना पड़ा कुछ दिनों के लिए। लेकिन बात में न सत्य था न तथ्य। तो हम अपनी जगह पर जमे रहे। काम करते रहे। पर चारो ओर से मेरे कैरियर को काटना शुरू किया गया। मेरे टेलीफ़ोन पर गलत जवाब जाते थे। 1942 ए लव स्टोरी के लिए आर. डी बर्मन ने मुझे कई बार तलाशा। कोई ग्यारह महीने तक वह तलाशते रहे पर ‘नहीं है’ का जवाब उन्हें मिलता रहा। तो इस तरह की मेरे खिलाफ साजिश चलती रही।’

‘पर कहा जाता है कि रवींद्र जैन ने आप को कैरियर दिया है?’ पूछने पर बह झल्ला कर बोलीं, ‘रवींद्र जैन के साथ जब गाना शुरू किया उस से पहले कोई एक हज़ार गाने मैं गा चुकी थी’। यह पूछने पर कि ‘कैरियर का सब से बढ़िया समय आप का कौन था?’ हेमलता बोलीं, कैरियर का सब से बढ़िया समय यही समय है। जिस से मैं अभी गुज़र रही हूँ। हर गीत एक चैलेंज की तरह है। परफॉर्मेंस में मज़ा आ रहा है। मैं चाहती हूँ कि इस में कुछ बदलाव आए। इस बदलाव का बहाना मैं बनूं। तो बहुत अच्छा, बहुत स्वीट दौर आएगा। ‘आप लोकभाषाओं की गायकी में जो टच देती हैं वह कैसे बन पड़ता है?’ हेमलता बोलीं, अलग-अलग लोकल डिक्शन पकड़ना मेरी हॉवी रही है। 38 भाषाओं में मैं गा रही हूँ। 14 भाषाओं के डिक्शन पर रिसर्च किया है। पर सब से बड़ा कॉम्पलीमेंट मुझे इटली में एक ओपेरा सिंगिग ग्रुप के साथ गाए गीत में मिला। जैसे आप पूछ रहे हैं वैसे ही वहां के लोगों ने भी पूछा कि इतना लोकल डिक्शन कैसे आ गया? वैसे मैं अफ्रीकन, जूलो, मुल्तानी, सरायकी, पोरचुकी भाषाओं में भी गा रही हूँ। पर मुझे सब से प्रिय है हिंदी गीत गाना। महादेवी और मैथिली शरण गुप्त मेरे प्रिय कवि हैं।

‘पर ऐसे गीत कहां गाए हैं आप ने?’ पूछने पर वह बोलीं, ‘गाए तो हैं पर वह मिले कम हैं। दिक्कत यह है कि हमारी फ़िल्म इंडस्ट्री में सिंगर का हस्तक्षेप नहीं होता। मुझे कई बार बीच गाने में छोड़ कर भागना पड़ता है। जैसे कि सावन कुमार की ‘खलनायिका’ में चोली वाला गीत छोड़ कर भागना पड़ा। ‘सात सहेलियां खड़ी-खड़ी भी छोड़ना पड़ा था’। ‘इन दिनों किस बैरियर से गुजर रहीं हैं?’ हेमलता बोलीं, ‘बैरियर न पहले कमज़ोर था न अब है। पर पहले मंगेशकर बैरियर के बावजूद, पोलिटिक्स के बावजूद संगीत तो था। पर आज के बैरियर में कला की बात ही नहीं। न आवाज़ की न डिक्शन की। आज जिन चीजों की ज़रूरत है, वह न मुझ में है और न मैं हो सकती हूँ। आई एम टू लेट। दूसरा जन्म लेना पड़ेगा। गानों में अब पंचिंग सिस्टम हो गया है। डबिंग सिस्टम हो गया है। अब जब सिंगर को ही गाना याद नहीं रहता तो पब्लिक को क्या याद रहेगा?

‘इन दिनों क्या कर रहीं है आप?' वह बोलीं, रिकॉर्डिंग अपने ही गानों की। फ़िल्मों में जो गा रही हूँ, वो तो गा ही रही हूँ। मेरे पति दिलीप साहब ने एक म्युजिक कंपनी लांच कर ली है। इन्हों ने मेरा अलबम रिकार्ड किया है गुरूवाणी, गुरुग्रंथ साहब से। पाकिस्तानी गायक अताउल्ला खान के साथ एक म्युजिक ट्रैक अभी लंडन में डब किया है। पर सब से मज़े की बात यह है कि 16 साल से जिस अताउल्ला खान को हिंदुस्तान के लोग सुन रहे हैं वह डुप्लिकेट फेक आवाज़ है। जो टी-सीरिज द्वारा जारी किया गया है। पर असली अताउल्ला खान बहुत जल्दी आप के सामने होंगे। हमारे साथ। अलबम का टाइटिल रखा है ‘सरहदें’। सरहदें में 6 डुएट्स हैं और एक-एक सोलो। पर अताउल्ला खान के फर्जी होने को भी हम इस के साथ ही पर्दाफाश करेंगे। जो अताउल्ला खान दरअसल टी सीरिज पर गा रहें हैं वह दरअसल गुड़गांव के एक शर्मा जी हैं।’


लेखक दयानंद पांडेय लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और उपन्‍यासकार हैं. उनसे संपर्क 09415130127, 09335233424 और dayanand.pandey@yahoo.com के जरिए किया जा सकता है. इनका यह लेख इनके ब्‍लॉग सरोकारनामा पर भी प्रकाशित हो चुका है.

Monday, August 19, 2013

मीना कुमारी / गुलज़ार

उसे ये ज़िद है कि मैं पुकारूँ ,मुझे तक़ाज़ा है वो बुला ले



शहतूत की डाल पर बैठी मीना
बुनती रेशम के धागे
लम्हा लम्हा खोल रही है
पत्ता पत्ता बीन रही है
एक एक साँस बजा कर सुनती है सोदायन
अपने तन पर लिपटती जाती है
अपने ही धागों की कैदी
रेशम की यह कैदी शायद एक दिन अपन ही धागों में घुट कर मर जायेगी !(गुलजार )

इसको सुन कर मीना जी का दर्द आंखो से छलक उठा उनकी गहरी हँसी ने उनकी हकीकत बयान कर दी  और कहा जानते हो न वह धागे क्या हैं ? उन्हें  प्यार कहते हैं मुझे तो प्यार से प्यार है ..प्यार के एहसास से प्यार है ..प्यार के नाम से प्यार है इतना प्यार कोई अपने तन पर लिपटा सके तो और क्या चाहिए...

मीनाकुमारी ने जीते जी अपनी डायरी के बिखरे पन्ने प्रसिद्ध लेखक गीतकार गुलजार जी को सौंप  दिए थे ।  सिर्फ़ इसी आशा से कि सारी फिल्मी दुनिया में वही एक ऐसा शख्स है ,जिसने मन में प्यार और लेखन के प्रति   आदर भाव थे ।मीना जी को यह पूरा  विश्वास था कि गुलजार  ही सिर्फ़ ऐसे  इन्सान है जो उनके लिखे से बेहद  प्यार करते हैं ...उनके लिखे को समझते हैं सो वही उनकी डायरी के सही हकदार हैं जो उनके जाने के बाद भी उनके लिखे को जिंदा रखेंगे और उनका विश्वास झूठा नही निकला |गुलजार जी ने मीना जी की भावनाओं की पूरी इज्जत की उन्होंने उनकी नज्म ,गजल ,कविता और शेर को एक किताब का रूप दिया |
मीना जी की आदत थी रोज़ हर वक्त जब भी खाली होती डायरी लिखने की ..वह छोटी छोटी सी पाकेट डायरी अपने पर्स में रखती थी ,गुलजार जी ने एक बार पूछा उनसे कि यह हर वक्त क्या लिखती रहती हो,तो उन्होंने जवाब दिया कि मैं कोई अपनी आत्मकथा तो लिख नही रही हूँ बसकह देती हूँ बाद में सोच के लिखा तो उस में बनावट  आ जायेगी जो जैसा महसूस किया है उसको उसी वक्त लिखना अधिक अच्छा लगता  है  मुझे ...और वही डायरियाँ नज़मे ,गजले वह विरासत में अपनी वसीयत में गुलजार जी  को दे गई जिस में से उनकी  गजले किताब के रूप में आ चुकी हैऔर अभी डायरी आना बाकी है |
गुलजार जी कहते हैं पता नही उसने मुझे ही क्यों चुना इस के लिए वह कहती थी कि  जो सेल्फ एक्सप्रेशन अभिव्यक्ति  हर लिखने  वाला राइटर शायर या कोई कलाकार   तलाश करता है वह तलाश उन्हें  भी थी शायद वह कहती थी कि जो में यह सब एक्टिंग करती हूँ वह ख्याल किसी और का है स्क्रिप्ट किसी और की  और डायरेक्शन  किसी और कहा  कि इस में मेरा अपना जन्म हुआ कुछ भी  नही मेरा जन्म वही है जो इन डायरी में लिखा  हुआ है ...मीना जी का विश्वास गुलजार पर सही था ..

क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ
जुनूँ ये मजबूर कर रहा है पलट के देखूँ
ख़ुदी ये कहती है मोड़ मुड़ जा
अगरचे एहसास कह रहा है
खुले दरीचे के पीछे दो आँखें झाँकती हैं
अभी मेरे इंतज़ार में वो भी जागती है
कहीं तो उस के गोशा-ए-दिल में दर्द होगा
उसे ये ज़िद है कि मैं पुकारूँ
मुझे तक़ाज़ा है वो बुला ले
क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ.......(.गुलजार )

Wednesday, May 1, 2013

"वो दिन हवा हुए कि जब पसीना गुलाब था"


 

कभी-कभी बातचीत के दौरान हम आधे-अधूरे शेर या मिसरे मसाले के रूप में जोड़ देते हैं। पर पूरा मिसरा या शेर याद नहीं होता या पता ही नहीं होता। ऐसी ही कुछ लोकप्रिय पंक्तियां हाज़िर हैं पर खेद है कि सब के रचनाकारों का नाम नहीं खोज पाया हूं।
जान है तो जहान है। यह मीर साहब की रचना इस प्रकार है :-
'मीर' अम्दन भी कोई मरता है,
"जान है तो जहान है प्यारे।"

चल साथ कि हसरत दिले-मरहूम से निकले,
"आशिक का जनाजा है जरा धूम से निकले"

गालिब साहब के तो ढेरों आधे-अधूरे मिसरे हमारी जबान पर वर्षों से चढे हुए हैं :-
इशरते कतरा है दरिया में फना हो जाना,
"दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना।"

हमको मालूम  है जन्नत की हकीकत लेकिन
"दिल को खुश रखने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है।"

गमे हस्ती का असद जुज मर्ग इलाज,
"शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक"

उनको देखने से आ जाती है मुंह पर रौनक,
"वो समझते हैं कि बीमार  का हाल अच्छा है"

बुलबुल के कारोबार पे हैं खंदाहाए गुल,
कहते हैं जिसको इश्क खलल है दिमाग का।
ऐसे और भी हैं :-
"हजरते 'दाग' जहां बैठ गये बैठ गये"
और होंगे तेरी महफिल से उभरनेवाले।

मरीजे इश्क पे रहमत खुदा की।
"मर्ज बढता गया ज्यूं-ज्यूं दवा की"

हम तालिबे शोहरत हैं हमें नंग से क्या काम,
"बदनाम गर होंगे तो क्या नाम ना होगा"

रिंदे खराब हाल को जाहिद ना छेड़ तू,
तुझको पराई क्या पड़ी अपनी निबेड़ तू।
और
अब इत्र भी मलो तो मुहब्बत की बू नहीं,
"वो दिन हवा हुए कि जब पसीना गुलाब था" :)

जमाना बड़े शौक से सुन रहा था,
हमीं सो गये दास्तां कहते-कहते।